
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव आज एक बार फिर साइकिल की सवारी करने वाले हैं। अपनी सरकार बनने के बाद यह पहला मौका होगा जब वे खुद ही एक जनसंपर्क अभियान की अगुवाई करेंगे।
यह जन संपर्क अभियान वे अपने पिता और पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को देश के सबसे बड़े पद की दावेदारी को सुनिश्चित करने के लिए चलाने जा रहे हैं।
शिकोहाबाद में आज शुरू होने जा रहे साइकिल मैराथन का हिस्सा बनकर वह खुद भी साइकिल यात्रा कर अपने गांव सैफई पहुंचेंगे। सैफई में इन दिनों महोत्सव चल रहा है।
अखिलेश की साइकिल यात्रा सैफई स्टेडियम पहुंचकर पूरी होगी। अखिलेश ने सपा के प्रदेश अध्यक्ष के तौर ऐसे ही जन संपर्क अभियान केजरिए तत्कालीन बसपा सरकार के खिलाफ माहौल बनाया था।
उन्होंने पूरे प्रदेश में साइकिल और समाजवादी क्रांति रथयात्रा कर लोगों से बसपा सरकार के दौरान हुए भ्रष्टाचार और कुशासन को समाप्त करने का वादा किया था।
एक नौजवान नेता की इस बात पर प्रदेश की जनता ने भरोसा किया और सपा को पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का मौका मिला।
2012 के चुनाव में सपा को कुल 29 फीसदी वोट मिले थे और पार्टी के 224 उम्मीदवार चुनाव जीत गए। बसपा को इस चुनाव में महज 80 सीटें मिली और उसका वोट प्रतिशत तकरीबन 26 फीसदी पर सिमट गया।
यानी सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष केवोट प्रतिशत में महज तीन फीसदी का फासला बना रहा। इन चुनाव में बसपा के अलावा दो और राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस को 15 और 13 फीसदी वोट हासिल हुए।
ये आंकड़े बताते हैं कि यूपी की सियासत में सक्रिय प्रमुख दलों का जनाधार क्या है और सत्ताधारी दल सपा की चुनौतियां कितनी बड़ी।
अखिलेश यादव जब एक बार फिर जनता केबीच होंगे तो यह सवाल उनसे जरूर पूछा जाएगा कि उनकी सरकार ने क्या किया?
जाहिर है उन्हें और उनकी पार्टी को अब जो वोट मिलेंगे वह इस बात पर मिलेंगे कि वह लोगों की उम्मीदों पर कितने खरे उतरे हैं? इसमें कोई दो राय नही कि उनकी सरकार की शुरुआत अच्छी रही।
यूपी में यह शायद पहली बार हुआ जब किसी सरकार ने अपने चुनावी वादों पर गंभीरता से काम करना शुरू किया। नौजवानों, किसानों और मुसलमानों से किए वादों पर सरकार ने एक-एक कर अमल शुरू किया।
कई योजनाएं जमीन पर उतरीं। उसका सकारात्मक असर दिखा। पर शायद पहले ही दिन से अखिलेश सरकार के साथ अनुशासनहीनता का जो दुर्भाग्य जुड़ा वह उसके लिए नुकसानदेह साबित हुआ।
कार्यकर्ताओं की अनुशासनहीनता से शुरू बात नेताओं की अनुशासनहीनता तक पहुंच गई। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह की लगातार चेतावनियों के बावजूद इसमें सुधार के लक्षण नहीं दिखे।
कई नेताओं और मंत्रियों तक ने समाजवाद के नाम पर उदंडता के नए-नए प्रतिमान गढ़े। अखिलेश के नाम पर सपा को वोट करने वाले नौजवान और नई पीढ़ी के मतदाताओं को निश्चित ही ये उम्मीद थी कि वे एक अनुशासित सरकार देंगे।
इसके अलावा मुजफ्फरनगर दंगे की छाया भी अगले चुनाव में सरकार का इम्तहान लेंगी जनता के लिए अखिलेश सरकार के इन खट्टे मीठे अनुभवों के बीच दूसरे दलों ने अपनी ताकत बढ़ाई है।
बसपा के लिए अखिलेश सरकार की कमियां ही सबसे बड़ी ताकत होगी। दूसरी ओर कमजोर दिखने वाली भाजपा अब मोदी की संजीवनी पाकर पहले से ताकतवर दिखने लगी है।
कांग्रेस के लिए शायद हताशा भरे समय होंगे पर अगले लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की चुनौती सभी दलों के लिए बेहद सख्त होगी।
आप कितनी सीटें लड़ेगी, कितनी जीतेगी यह ज्यादा मायने नहीं रखता लेकिन प्रदेश में उसकी सक्रियता से यह फर्क जरूर महसूस होगा कि सपा समेत सभी सियासी दलों से आम आदमी यानी वोटरों की उम्मीदें अब बढ़ गई हैं।
यह जन संपर्क अभियान वे अपने पिता और पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को देश के सबसे बड़े पद की दावेदारी को सुनिश्चित करने के लिए चलाने जा रहे हैं।
शिकोहाबाद में आज शुरू होने जा रहे साइकिल मैराथन का हिस्सा बनकर वह खुद भी साइकिल यात्रा कर अपने गांव सैफई पहुंचेंगे। सैफई में इन दिनों महोत्सव चल रहा है।
अखिलेश की साइकिल यात्रा सैफई स्टेडियम पहुंचकर पूरी होगी। अखिलेश ने सपा के प्रदेश अध्यक्ष के तौर ऐसे ही जन संपर्क अभियान केजरिए तत्कालीन बसपा सरकार के खिलाफ माहौल बनाया था।
उन्होंने पूरे प्रदेश में साइकिल और समाजवादी क्रांति रथयात्रा कर लोगों से बसपा सरकार के दौरान हुए भ्रष्टाचार और कुशासन को समाप्त करने का वादा किया था।
एक नौजवान नेता की इस बात पर प्रदेश की जनता ने भरोसा किया और सपा को पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का मौका मिला।
2012 के चुनाव में सपा को कुल 29 फीसदी वोट मिले थे और पार्टी के 224 उम्मीदवार चुनाव जीत गए। बसपा को इस चुनाव में महज 80 सीटें मिली और उसका वोट प्रतिशत तकरीबन 26 फीसदी पर सिमट गया।
यानी सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष केवोट प्रतिशत में महज तीन फीसदी का फासला बना रहा। इन चुनाव में बसपा के अलावा दो और राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस को 15 और 13 फीसदी वोट हासिल हुए।
ये आंकड़े बताते हैं कि यूपी की सियासत में सक्रिय प्रमुख दलों का जनाधार क्या है और सत्ताधारी दल सपा की चुनौतियां कितनी बड़ी।
अखिलेश यादव जब एक बार फिर जनता केबीच होंगे तो यह सवाल उनसे जरूर पूछा जाएगा कि उनकी सरकार ने क्या किया?
जाहिर है उन्हें और उनकी पार्टी को अब जो वोट मिलेंगे वह इस बात पर मिलेंगे कि वह लोगों की उम्मीदों पर कितने खरे उतरे हैं? इसमें कोई दो राय नही कि उनकी सरकार की शुरुआत अच्छी रही।
यूपी में यह शायद पहली बार हुआ जब किसी सरकार ने अपने चुनावी वादों पर गंभीरता से काम करना शुरू किया। नौजवानों, किसानों और मुसलमानों से किए वादों पर सरकार ने एक-एक कर अमल शुरू किया।
कई योजनाएं जमीन पर उतरीं। उसका सकारात्मक असर दिखा। पर शायद पहले ही दिन से अखिलेश सरकार के साथ अनुशासनहीनता का जो दुर्भाग्य जुड़ा वह उसके लिए नुकसानदेह साबित हुआ।
कार्यकर्ताओं की अनुशासनहीनता से शुरू बात नेताओं की अनुशासनहीनता तक पहुंच गई। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह की लगातार चेतावनियों के बावजूद इसमें सुधार के लक्षण नहीं दिखे।
कई नेताओं और मंत्रियों तक ने समाजवाद के नाम पर उदंडता के नए-नए प्रतिमान गढ़े। अखिलेश के नाम पर सपा को वोट करने वाले नौजवान और नई पीढ़ी के मतदाताओं को निश्चित ही ये उम्मीद थी कि वे एक अनुशासित सरकार देंगे।
इसके अलावा मुजफ्फरनगर दंगे की छाया भी अगले चुनाव में सरकार का इम्तहान लेंगी जनता के लिए अखिलेश सरकार के इन खट्टे मीठे अनुभवों के बीच दूसरे दलों ने अपनी ताकत बढ़ाई है।
बसपा के लिए अखिलेश सरकार की कमियां ही सबसे बड़ी ताकत होगी। दूसरी ओर कमजोर दिखने वाली भाजपा अब मोदी की संजीवनी पाकर पहले से ताकतवर दिखने लगी है।
कांग्रेस के लिए शायद हताशा भरे समय होंगे पर अगले लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की चुनौती सभी दलों के लिए बेहद सख्त होगी।
आप कितनी सीटें लड़ेगी, कितनी जीतेगी यह ज्यादा मायने नहीं रखता लेकिन प्रदेश में उसकी सक्रियता से यह फर्क जरूर महसूस होगा कि सपा समेत सभी सियासी दलों से आम आदमी यानी वोटरों की उम्मीदें अब बढ़ गई हैं।
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