Saturday, December 28, 2013

कहीं हरिओम न बन जाएं 'आप' के कई विधायक

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आम आदमी पार्टी के आम विधायकों को देखकर कभी-कभी लगता है कि कहीं वे 'हरिओम' न बन जाएं।
आम आदमी पार्टी के कुछ विधायक ऐसे हैं जो वाकई आम आदमी हैं। राजनीतिक सिस्टम, उसकी मजबूरियां और उसे चलाने वाले टूल्स की न तो उनमें समझ नजर आती है और न ही उसे वह समझना चाहते हैं।
इन पेंचीदगियों को न समझना ही वह अपनी यूएसपी मानते हैं। चूंकि उनके नेता इसी सुर में बोलते हैं। अब डर यह है कि इन 'आम' विधायकों का हाल कानपुर के विकास जायसवाल उर्फ हरिओम जैसा न हो जाए।

विकास जायसवाल का किस्सा क्या है?

यह किस्सा कानपुर के एक वार्ड के चुनाव का है। महेश्वरी मोहाल में कांग्रेस के दिग्गज नेता अशोक दीक्षित उर्फ बब्बन भाई कई बार से पार्षद का चुनाव जीतते आ रहे हैं। चुनाव लड़ने का उनका एक मैनजमेंट है। अशोक दीक्षित का कद उनके पद से हमेशा बड़ा रहा है। जो काम उस क्षेत्र का विधायक न करा पाए वह काम अशोक दीक्षित फोन से करा दिया करते हैं। उनके ताकतवर होने का यही परसेप्‍शन उन्हें हर बार चुनाव में जिताता रहा।
हर बार लगता कि बब्बन भाई इस बार हार जाएंगे लेकिन उनके वोट उतने ही बढ़ते जाते। 2005 में उसी क्षेत्र में रहने वाले एक युवा विकास जायसवाल 'हरिओम' ने लोगों से मिलना जुलना शुरू किया। किसी के परिवार में शादी हो या मौत हरिओम लोगों के साथ खड़े होते। कभी हरिओम किसी की मोटरसाइकिल में बैठकर मदद के कचहरी जाते दिखते तो कभी थाने।
क्षेत्र के लोगों को लगा कि उनके सच्‍चे मददगार हरिओम ही हैं। ऐसा था भी। बब्बन भाई के कद के लिहाज से पार्षद का पद कुछ नहीं था। वह तो बस लड़ने के लिए लड़ते। तो हुआ यूं कि हरिओम की मेहनत रंग लाई और 2007 में वह चुनाव जीत गए।
जीत तो गए हरिओम
जीत के बाद हरिओम घर-घर लोगों से मिलने गए। लोगों के पैर छुए और गले लगाया। असल चुनौती अ‌ब हरिओम के सामने आने वाली थी। विकास जायसवाल उर्फ ह‌रिओम 24 घंटे लोगों की मदद के लिए खड़े रहते। उनके बारे में ऐसी बातें होती कि हरिओम किसी मददगार के लिए हर वक्त उपलब्‍ध रहते। काम के लिए वह नहाना-खाना़ छोड़ देते हैं। जिन कपडों में होते हैं वही कपड़े पहनकर चल देते।
लेकिन इस बीच कुछ ऐसा हुआ जिसकी आशंका तो सभी के मन में थी लेकिन कोई कहता नहीं था। होता ये कि हरिओम किसी पीड़ित के साथ थाना या नगर निगम ऑ‌फिस जाते तो हरिओम के साथ वैसा ही व्यवहार होता जैसा कि किसी भी एक अजनबी के साथ, पहली बार किसी ऑफिस में गए लोगों के साथ होता। जब थाने में हरिओम से पुलिस से बात कर रहे होते तो पुलिस का बात करने का लहजा, हरिओम के साथ भी वैसा होता जैसा किसी भी कमजोर आदमी के साथ होता है।
फिर शुरु हुईं समस्याएं
स्थानीय लोग बताते हैं कि कई बार ऐसा हुआ जब हरिओम किसी मुद्दे पर नगर निगम में जिस अधिकारी से रिरिया कर बात कर रहे थे, उसी समय बब्बन भाई भी वहां पहुंच गए। उस अधिकारी ने बढ़कर बब्बन भाई से न सिर्फ हाथ मिलाया बल्कि उनसे हमारी चाय पीने का निवेदन भी किया। हरिओम खड़े ही रहे और बब्बन भाई के लिए चपरासी ने कुर्सी सामने कर दी।
बब्बन भाई उम्र में बड़े थे। तो कई बार माहौल ऐसा भी बना कि हरिओम को उनके घुटने ही सही पर पैर छूने पड़े। इतनी देर में जो फरियादी हरिओम के साथ आए होते उसमें कुछ बब्बन भाई के डर से वहां से हट लेते या फिर वह भी बब्बन भाई के पैर भी छू रहे होते। बब्बन भाई वहां पहुंचे लोगों से मुख‌ातिब होते और उनसे उनकी समस्या पूछते। चलते वक्त बहुत ही फौरी तौर पर वह उस अधिकारी को निर्देश देते। अधिकतर मामलों में काम हो भी जाता। बब्बन भाई जब निकलने को होते तो पैर छूने का एक दौर शिष्टाचार में ही सही पर चलता रहता।
क्या हुआ हरिओम का?
ऐसे किस्से नगर निगम, थानों, कचहरी, अस्पतालों और कई बार सड़कों पर दोहराए जाने लगे। 6 महीने के अंदर ही लोग यह कहने लगे कि हरिओम आदमी तो ईमानदार हैं पर वह किसी काम के नहीं। किसी काम के न होने की यह इमेज तब और पुख्ता हो गई जब वह अपनी ही गली में कंक्रीट रोड न पास करा पाए।
आगे की कहानी बहुत ही छोटी है। हरिओम ने तीसरे साल ही अजीविका के लिए कुछ पार्ट टाइम काम करना शुरू कर दिया। जिस पार्षदी से बब्बन भाई लाखों कमा रहे थे हरिओम उससे हजार भी न कमा पाते। वह चाहते तो कमा लेते। लेकिन कुछ अलग होने की यह इमेज उन्हें ऐसा करने न देती।
हरिओम उसके बाद भी लोगों के घर शादियों और शमशान घाट पर बराबर पाए जाते। 2012 का चुनाव न तो उनमे लड़ने की हिम्मत थी न ही किसी के ये कहने कि हरिओम भाई तुम चुनाव लडो। अशोक दीक्षित उर्फ बब्बन भाई 2012 में एक बार फिर से बड़े बहुमत के साथ जीतकर आए।

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