माँ - मुनव्वर रना साहब

लबो पर उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो कभी खफा नहीं होती|
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है,
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है|
मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आंसू,
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना|
अभी ज़िंदा है माँ मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है|
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है|
ए अँधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया|
मेरी ख्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊँ,
माँ से इस तरह लिपटूँ कि बच्चा हो जाऊँ|
'मुनव्वर' माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना,
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अछ्ही नहीं होती|
लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है,
मैं उदृ में ग़ज़ल कहता हूँ हिंदी मुस्कराती है|

लबो पर उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो कभी खफा नहीं होती|
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है,
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है|
मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आंसू,
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना|
अभी ज़िंदा है माँ मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है|
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है|
ए अँधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया|
मेरी ख्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊँ,
माँ से इस तरह लिपटूँ कि बच्चा हो जाऊँ|
'मुनव्वर' माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना,
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अछ्ही नहीं होती|
लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है,
मैं उदृ में ग़ज़ल कहता हूँ हिंदी मुस्कराती है|
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