Saturday, December 21, 2013

समलैंग‌िकों के समर्थन में केंद्र, पुनर्विचार याचिका दायर

government filed reconsideration plea in homosexual issue

खास-खास

सरकार के कदम
  • संशोधन से बचने के लिए केंद्र ने लगाई जुगत
  • सरकार ने अपने ही कानून को पुनर्विचार याचिका में बताया त्रुटिपूर्ण
  • कहा, सर्वोच्च अदालत के फैसले का बचाव नहीं किया जा सकता
कानून बनाने और उसमें बदलाव करने में सक्षम केंद्र सरकार अप्राकृतिक यौनाचार को दंडनीय अपराध करार देने वाली आईपीसी की धारा 377 में खुद संशोधन करने की बजाय सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुंच गई है।

एक तरफ कुआं और एक तरफ खाई से बचने की जुगत लगाते हुए सरकार ने सर्वोच्च अदालत में पुनर्विचार याचिका दायर कर उस फैसले पर दोबारा विचार करने का आग्रह किया है, जिसमें धारा 377 को संवैधानिक ठहराया था।

सरकार ने समलैंगिक वयस्कों में स्वेच्छा से यौन संबंध बनाने को अपराध के दायरे से बाहर करने के दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को निरस्त करने की व्यवस्था पर सर्वोच्च अदालत से पुनर्विचार की मांग की है।

मौजूदा कानून के तहत अप्राकृतिक यौनाचार दंडनीय अपराध है, जिसके लिए उम्रकैद की सजा तक का प्रावधान है। सरकार ने पुनर्विचार याचिका में कहा है कि हाईकोर्ट के आदेश को निरस्त करने के शीर्षस्थ अदालत की ओर से 11 दिसंबर को दी गई व्यवस्था का बचाव नहीं किया जा सकता।

केंद्र की इस याचिका को एजी गुलाम ई वाहनवती ने अंतिम रूप दिया है, जिसमें अदालत से याचिका का निपटारा करने से पहले ओपन कोर्ट में मौखिक दलीलें पेश करने की अनुमति देने का आग्रह किया गया है।

पुनर्विचार के लिए दिए 76 आधार
पुनर्विचार याचिका में सरकार ने 11 दिसंबर के निर्णय पर फिर से विचार करने के लिए 76 आधार दिए हैं।

याचिका में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय त्रुटिपूर्ण ही नहीं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों के बारे में दिए गए सिद्धांतों के खिलाफ है।

गृह मंत्रालय ने पुनर्विचार याचिका में कहा है कि एकांत में सहमति से यौन संबंध स्थापित करने को अपराध करार देने वाली आईपीसी की धारा 377 का प्रावधान संविधान में दिए गए समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है।

याचिका में कहा गया है कि प्राकृतिक व्यवस्था के खिलाफ संबंध बनाने को अपराध करार देने वाली धारा 377 ब्रिटिश काल के पुराने कानूनों के मुताबिक है जिसे भारत में 1860 में शामिल किया गया था।

याचिका के अनुसार इसकी कोई कानूनी शुद्धता नहीं है और यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के मद्देनजर गैरकानूनी है। याचिका में यह तर्क भी दिया गया है कि शीर्षस्थ अदालत ने भी यह व्यवस्था दी है कि एक कानून जो लागू किए जाने के समय न्यायोचित था समय के साथ मनमाना और अनुचित हो सकता है।

फैसले के निष्कर्ष सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्थाओं के विपरीत : केंद्र
सरकार ने पुनर्विचार याचिका में यह दलील भी दी कि फैसले में दिए गए सर्वोच्च अदालत के तमाम निष्कर्ष इसी न्यायालय की ओर से दी गई तमाम व्यवस्थाओं के विपरीत है।

याचिका के अनुसार सरकार ऐसे ही प्रत्येक निष्कर्ष पर सवाल उठा रही है जो पिछली व्यवस्थाओं के मद्देनजर त्रुटिपूर्ण नजर आते हैं।

सर्वोच्च अदालत के फैसले को मध्ययुगीन और प्रतिगामी बताते हुए कहा गया है कि शीर्षस्थ अदालत ने सुनवाई के दौरान केंद्र की इस दलील पर विचार ही नहीं किया कि हाईकोर्ट के निर्णय में किसी प्रकार की कानूनी खामी नहीं है।

याचिका में कहा गया है कि गृह मंत्रालय के माध्यम से केंद्र ने इस न्यायालय में अपील पर सुनवाई के दौरान कहा था कि हाईकोर्ट के दो जुलाई, 09 के फैसले में कोई कानून गलती नहीं है और इसी वजह से केंद्र की ओर से हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ कोई अपील दायर नहीं की गई थी।

सरकार ने तीसरे पक्ष के औचित्य पर उठाया सवाल
सरकार ने इस मामले में तीसरे पक्ष के औचित्य पर भी सवाल उठाया है, जिनकी अपील पर शीर्षस्थ अदालत ने फैसला सुनाया है।

याचिका के अनुसार हाईकोर्ट के निर्णय को अधिकांश तीसरे पक्षों ने ही चुनौती दी थी जो हाईकोर्ट में पक्षकार नहीं थे। सर्वोच्च अदालत को ऐसी स्थिति में विचार करने के चरण में ही उन याचिकाओं को खारिज कर देना चाहिए था।

क्योंकि कानूनों की संवैधानिकता का बचाव करना तीसरे पक्ष का नहीं, बल्कि राज्य का कर्तव्य है। सरकार ने सर्वोच्च अदालत की इस टिप्पणी पर भी सवाल उठाया है कि हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती नहीं देने के केंद्र के फैसले के बावजूद संसद को कानून में संशोधन की राय दी गई।

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